جمعه ۲ آذر
اشعار دفتر شعرِ آرزوی کال شاعر م مومنی
|
|
مکث و تردید مکن پیرهنت را بفرست...
|
|
|
|
|
شب می چکد از خلوت این خانه تاریک
انگار سحر گم شده در بطن جهانم
|
|
|
|
|
مهربانی,آسمانی,چشمه ی عشق و امید
تو خدای مطلقی حتی از آن هم خوب تر
|
|
|
|
|
دوست میدارمت پاییز فصل جاودانه...
|
|
|
|
|
ای نور چشمم کاشکی،با من کمی بهتر بدی...
|
|
|
|
|
تو مست و بشکسته سبوی,هردم شرارم می کنی
|
|
|
|
|
ای ساکنان شهر دور,اینجا هوایی دیگر است
|
|
|
|
|
مرا سخن بیاموز که تشنه کلامم
کمال تو نگنجد میان شعر خامم
|
|
|
|
|
همین لبخند تو گویای جنگ است
درفشی به از این بر لشکرت نیست
|
|
|
|
|
از آن طوفان به بعد بارانی ام هنوز
|
|
|
|
|
تقدیم به پیشگاه مقدس صاحب الامر حضرت مهدی(عج)
|
|
|
|
|
پیدا و پنهانم تویی،پیدا و پنهانت منم؟
تنها غزلخوانم تویی،تنها غزلخوانت منم؟
|
|
|
|
|
شب وبازسکوت خالی من
میان شعله تکرارگم شد
|
|
|
|
|
درشبي باراني،شبي ازغصه سراسرلبريز
زير لب چيزي گفت:
|
|
|
|
|
در شبی بارانی
شبی از کینه تهی...
|
|
|