جمعه ۱۴ دی
اشعار دفتر شعرِ بیهوده شاعر آرزو نوری
|
|
بنشین و برای من نامه ای بنویس/ از خودت بگو ...
|
|
|
|
|
مرا «دنیا» صدا کن/ در من/ ...
|
|
|
|
|
همه ما/ خواب می دیدیم/ خواب خیابان/ خواب کوچه ...
|
|
|
|
|
حرف که می زنیم/ قفسی میشود ...
|
|
|
|
|
دنیا/دهکده کوچکی شده ....
|
|
|
|
|
وارونه افتاده بودم/ و ابتدای جهان گم شده بود
|
|
|
|
|
هر روز/ راس ساعت 4/ زنی کنار میله ها می نشیند
|
|
|
|
|
چقدر مرده ام/ این حرفها به گوش تو آشنا نیست؟
|
|
|
|
|
شکست گهواره/ بیآن که تاب بخورد ...
|
|
|
|
|
گود افتاده ام/ از کبودی زیر چشم ات ....
|
|
|
|
|
به دنیا آمدم/ زیر پل گیشا بایستم...
|
|
|
|
|
دريا/ جنگل!/ جنگل/ دريا!....
|
|
|
|
|
نه مثل خون تو سرخ/ نه گرم/ نه شیرین...
|
|
|
|
|
فریب خورده/ اینک یک زن است...
|
|
|
|
|
از کجا می آیند/ این سربازان کوچک چوبی...
|
|
|
|
|
پدرم می گوید / از خواب گرگها که بیایی...
|
|
|
|
|
رفتن تو/ آغاز عصر جدیدی بود....
|
|
|
|
|
شب به خیر می گوییم و بیدار می مانیم....
|
|
|