جمعه ۲ آذر
اشعار دفتر شعرِ فیل شاعر علی حقیری ( اَلیَسَع)
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یلدای گیس افشان! پائیزِ ما نمرده
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خرما بیاورید ...حلوا بیاورید
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در تخت مخملین خودت آرمیده ای
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این ماهرویِ صاعقه خو دلبرِ من است ...
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برای آن که دل ز بندِ او رها کنم/ به درگهِ خدای خود خدا خدا کنم
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من بودم و حبیب به شبهایِ بی شکیب ...
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همچون سکندر از پی خضری روان شوم ...
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هر عهد محکمی که به سوگند بسته ام / تنها به یک اشاره ی چشمش شکسته ام
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خسته ام من خسته ام از کار دنیا خسته ام ...
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ما نترسیم از شرار دوزخ طغیان خویش
سالها در مسجد چشمش نمازی داشتیم
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عشق گر ساقی شود میخانه کوثر میشود ...
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دوران عاشقی سَرِ سودایی آوَرَد
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میتپد قلبم ، خدا! در سینه غوغا میکند
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مطرب! بزن بر تار غم بسیار دارم
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چه کنم؟ جانِ دلم! طاقت هجرانم نیست
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دیده دریا کردم و دستان به سوی آسمان
وحی آمد : یوسفا حکمت بدان این چاه را
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دیگر از شب های ما شادی سفر کرده است ای دل
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دو سه روز است که ما و گِله ها تنهاییم
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منم آن قایق ویران شده ی اقیانوس
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