شنبه ۸ ارديبهشت
اشعار دفتر شعرِ دلنوشته های من شاعر مهدی عبدلی حسین آبادی
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ای عجب از کار دنیا ، بی هدَف / می کِشد محتاج هر نانی به صَف
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سیزده من به دَر آخر نشد و بی یاری / کنم این روز به سر با چهره غم باری
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جرئه ی جام می و دیدن رویت جانا / کرده لبریز مسرّت ز شادی ما را
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سپری شد همه عمرم که تو را بینم باز /دل فدا شد که ندانست و نمیداند راز
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این باده که در بادیه ام داد به بادم اا در تلخی ایام رسیده است به دادم
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هم صحبت من باش ، سخن با تو چنان است اا غیر از تو بگویند ، به لفافه فلان است
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مِی گُساری آمد و گفتا که اِی ااا بی خبر از گرمی بازار دِی
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اگر از فرش به عرش ازلی پَر نکشیم اا جرئه ای از می ناب خَلَدی سَر نکشیم
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در زمره این قافله ی دست فروشان /از بردن دستی به خطا دست بپوشان
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ای آینه ، تصویر مرا یادت هست ؟
بهترین جای اتاقم بگو جایت هست ؟
رنگ رخساره من دیدی و حاشا کردی
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تن من گرمی آغوش تو را می خواهد /شامه، عطرینه ی تنپوش تو را می خواهد
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سَر در گُم این کار جهانم که تو دانی
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درد بی دردمان من با درد تو ، درمان شود
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رایگان ، موی سیه را به فلک ، بخشیدم
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آبیاری می کند چشمان من را آن خیالت
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جگر بسوزد و جانم همی رسیده ، به لَب
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دم به دم شیشه دل می شکند ، می دانی
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کاش از این معرکه عشق ، گذر می کردم
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تاج و تختی در دلم دارد همان یارِ کَلیم
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من دامن تو گیرم و تو دامن این خاک
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تا کی کُنم این سر به گریبان و خورم غَم
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تا رها شد سَرِ زلفت ز تکان های سَری / همه دل را به همان گوشه چشمی تو بَری
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باز اگر رها شود، سلسله های موی تو
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وفا نکردی و کردم وفا به غمت
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تنیده چو پیچک ، دچار و مستانه
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وصف این خاطره ها با تو دل انگیز شده
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شیرین شده این کام من از بوسه یارم
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به تَمنّای تماشای تو لبریز ، نگاهم/
چشم براه نِگَهت از سَرِ شب تا به پگاهم
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ساز مرا بردار/این غم دل برچین
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خاک پای قدمت ، خوب در آبش کردم
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بوسه بر اشک تو و آن خیل مژگانت زنم
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لنگ لنگان که مرا با قدحی می بردند
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دل هوایت کند و از تو نباشد خبری ، انصاف است
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رفتی و نیست هوایت ، نَفَسم تنگ شده
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من به آن تیرگی قهوه تلخ تو، عادت کردم
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حاصل دیوانگیهایم هنوز ، پیدا ز کردار است ، چرا
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این هوای نم و باران زده در صبح دل انگیز/
برده من را به هوای ، تو دلارامِ سحر خیز
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برچین غم دل را ، به لبم خنده بیفروز
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قهوه تلخ نگاهت ، من به مهر ، کی نوشم
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آئینه مرا دید ، به لَختی ، نگران شد
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سَر اگر داری بیا ، تا شانه باشم ، بهر تو
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لب شیرین سخن و چالِ زنخدان دلارام
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دیدی دلا که قسمت ما ، یار با وفا، نشد
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کَسی چون من که می دارد عزیز ، آن جان و جانانت
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گره کور ، دگر باز ، به دندان نشود
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شراب عشق تو را میخورم، بدان که بعد از این ، دیگر ترک این می و ساغر نمی کنم.
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دابه را بستم به یوغ و بردمش بالای دشت
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عزم آن دارم که امشب ، با دلم تنها شوم
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مژده آن یار ، که از دیدن روی تو به شوق آمده است
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چشم من بر قد رعنای تو جان می افتد
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قول دادم به دلم از تو شکایت نکنم
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ترسم آن روز که خلق تو ز من تنگ شود
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آن حال دلم با تو سراپا خوب است
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باید آخر همه را از تو خبردار کنم/همه خوبان جهان از تو طرفدار کنم
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دیوانه دلی دارم و دیوار ، ندارد
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بادبان بر باد رفت و کشتی ام در گل ، بماند
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سر و جانم به فدای همه آن ناز و ادایت/تو شدی آن دل و جان و همه زندگی فدایت
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ترسم که دگر با دل من یار نباشی
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همه شب در پی خوبان جهان ، کوشیدم
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میکشد آن دل دیوانه ، به میخانه مرا
میکند مست چنانم ، که افسانه مرا
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چشم تو دیدم ، دلم خوب گرفتار شده
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یادم آمد که دلم بردی و ، بی تاب شدم
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در دل شادی همی، من زندگانی میکنم...
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هنوز اون عکس اتاقم ، خودنمایی میکند...
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سر به بالین میگذارم ، فکر تو آمد سرم
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آخرین بار که از دیدن یار غافل شد
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همچو طفلی در فراغت گریه و زاری کنم
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شاید آن جام که دادی، غم من چاره کند
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یاد یاری کردم و دل بی قراری می کند
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هر که را دیدم غمی با خود بدوش
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عشق یاری، گر که داری ، صحبتش با کس مکن
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ای که آشفته همه موهای تو...
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روزها رفتند و من تنهاتر از تنهاییم
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آن حوا رویان ، که دل میبرده اند
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