چهارشنبه ۲۶ ارديبهشت
شعر رباعی
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مهتاب شبی بلکه از آن خوبتری
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در وصف تو تحریر شده شعر و رُمان
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اگر دست کسی را نمی توانی بگیری
لااقل پای خودت را بگیر...
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هرچند شکایت از زمانه داریم
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خورشید شو و گرمی ایامم باش
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ما محرم رازیم نگو بند نبود
هرمان هسه حرمان دلش هند نبود
یغماگر چشمان خمارت غم ماست
ناگفته نماند م
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در مرگِ من، آن بیمَنِ من، کیست که هست؟
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در باور من شنبهی آغاز تویی
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من آدم و او همدم بدخوی نبود
هابیل چو قابیل بدین سوی نبود
این مَه، شبِ مهتاب ندارد شب او
نیمی گُل
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افکارِ خوشی میگذرد در سر من
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با رفتن تو پای دلم می لرزد
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بین من و چشمان تو راز است امشب
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از لحظه ی بیگانه شدن می ترسم
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همواره غمت بر دل من میتازد
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در باور من شنبهی آغاز تویی
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ان کس که خر جهل به اصرار براند..
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یک صبح بخیر ساده تقدیم تو شد
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هرچند که در شهر دلم تاج سری
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شب منتظر لحظهی دیدارم باش
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میخانه و می کار مرا زار نمود
هم سایه و همسار، چه بسیار نمود
یاری که نداریم ولی یاورمان
نادیده مرا
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اینگونه که بر چهرهی خود قاب زدید
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تو شبنم پاکیزه هر باغ و بری
از باغ و بر بهار هم تازه تری
آئینه بدست آور و خود را بنگر
بهتر زخودت
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آسوده بخواب ای پسر زال ایل
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در روز جزا اگر عدالت باشد
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غم داشت نقاب شادمانی زده بود
پیری که خودش را به جوانی زده بود
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گوشت به دهان شیخ بد کیش مده
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ما رهگذران خام بی استعداد
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آن دم که لبم بر لبِ ایمانسوز است...
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مِی خواهم و مِی خواهد و مِی نیست چرا؟!
هر جا که دلم خواست دِ لِی نیست چرا؟!
یاقی شده این دل شده ام
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شب را به تو بنماید و گوید روز است...
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خوشبو چو گل باغ بهاری هستی
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لحظهبهلحظه بیامان خواهی بود...
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آن شیخ که در نماز بس گریان شد...
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مجنون توام لیلیِ تبریزیِ من
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شرمنده ی اشک های کوثر شده ایم
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چون از تو امید بربگیرم ای عشق؟!
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ای دوست بیا تا که توانی مانده ست
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نه بُلهَوسم نه بز دل و بیعارم
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زن بود چون سیب قرمز در بهار
ظاهری زیبا برد از دل قرار
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برخیز بیا یکسره فریاد شویم
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در مخمل آغوش تو خوابیدم من
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ما نیز تماشای مهنّا کردیم
همچون دگری حافظ و معنا کردیم
یک شب دل سنگش بشکست این دل را
نذری ننمودیم
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دل گیر و مگرد از سخنِ دل، دلگیر...
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در این شعر به شراب عارفانه و حالات عرفانی اشاره شده است.
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با عشوه و ناز آمده است بار دگر
با تاج پر از سنبل و ریحانه به سر
بیدار شو ای بلبل و در را بگشا
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زیباییِ آشکار یعنی خود تو
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من هتکة بیجای تو را سر نکنم
هرمانم و من فکر تو را در نکنم
این گلرخ مهپارة ما ماه مرا
نادیده گرفت
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یار آمد و از آمدنش شادم من
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دو رباعی از مهدی ملکی الف همراه با عنوان
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بی عشق اگر شدی...تماما لافی!
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ما ترک نگفتیم که او درک کند
شاید دل او کینهٔ دل چرک کند
لیکن نکند روی به معراج دلش
ترکی که خودش ر
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♥️بنشین کنار من، رویای من، یارا♥️
♥️بنگر به این عاشق، زیبای من، جانا♥️
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آزاد ز خویش و از دگر باید بود!
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معصوم و رها نماد آزادی ها
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باید گُذری از گذران در هر روز...
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زندگی، در تابش خورشید، هویدا نمیشود مگر؟
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چند رباعی تقدیم نگاه زیبای شما
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هست از تو مرا هر آنچه از هستی هست...
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هم صحبت من باش ، سخن با تو چنان است اا غیر از تو بگویند ، به لفافه فلان است
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بس در پی ظاهری، نهان را پس چه؟
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ای غرقه به آه در رهت، صدها چشم...
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ترسم دل او از گله آگاه شود
فریاد دلم هلهله بر چاه شود
تا بوده همین بوده ولی خرمن ما
حسرت به دلش آ
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دلتنگیِ سختیست در این سینهی من
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دیـکتـه به غلـط شـد مَـثَلـی ، بـاید گـفت :
" شاهـنامه مـزاج پارسـیان خوش باشد "
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♥️ترسم نبود ز عشق رسوای به یار♥️
♥️دنیای بدون عشق، نایدش بکار♥️
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یا رب تو چه دانی که چه شد دوش مرا
آن پیک تو حتی نکند نوش مرا
یک گندم جنّت بس و آگاه شوم
نوشم قدحی
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