پنجشنبه ۱ آذر
اشعار دفتر شعرِ پرسه های بی چراغ شاعر علیرضا کاشی پور محمدی
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به ناگیراترین دیدار ، پروانه
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در آخرین غروب ِ ماه ِ مبارک
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یک کوچه مانده تا به آغوشت رسیدن
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باد شلخته در درنگ ِ خیس ِ نوروز
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بوی نور تازه می دهد احساسم
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تا آفتاب و نسیم به انتظار بمانند
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به جلوه خون تازه ای به چشم این و آن بده
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خیرات می کنیم حلوای ِانتظار
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من خسته ام تمام وجودم گرفته است
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با من بیا تا فرصت با هم شدن ها
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گرفتار به بلبشوی غریبی در جاده ای سبقت می تازند
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آشپزخانه ی تو
خانه ی روشن ِ رویای من است
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به مناسبت سوم آذر سالروز تولد احمد شاملو
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بر فرجام ِ عصر ِ خویش
ناز ِ ابلیس می کشیم
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خودم را با خودم سر آشتی نیست
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امشب به سویم پر کشیده قاصدک ها
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اگر که آینه تاب آورد نگاهش را
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بی صدا ، خاموش ، افتاده کنار ِ آرزوهایش
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کفش ها ، قرمز و آبی یا سبز ، قهوه ای یا مشکی
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دیگر برای شعر پاییزی نمانده
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پابند دل سپاری ِفردای چیستی
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پیش از تولد ِ آهوی بی نفس
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امشب نگاه آینه ها درد می کند
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شیرینی ِخویش را به فرهاد دهید
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صدایت را که سرشار است از بوی تراویدن
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ماه رمضان و صد بلا را چاره
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تکه تکه برش برش مانده زیر بار تحملم آوار
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آن چه باقی مانده از جهان من و تو
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باز خرداد و جلوه های بهار با فصل قشنگ ِ زردآلو
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از شهوت ِ اقاقیای ِ لبت بوسه می چکد
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خبری ندارم از تو چه بهار پر عذابی
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و امروز هم سربرنکرده از پس ِ دیروز
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دودی غلیظ و تلخ دارد که می رود در چشم ِ آسمان
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در محضر غروب یکی جمعه ی غریب
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تو می رسی وآینه لبخند می شود
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بر برگپاش کوچه باران و آفتاب
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چون کاغذ مچاله که افتاده پیش ِ پا
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اگر چه با خفقان سخت کشمکش دارم
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تا می خورد به تخته ی شعرم
در ِ خیال
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